वैदिक कर्मकाण्ड में पुरूष सूक्त का बहुत ही बड़ा योगदान है। हम आपको बताने जा रहे है कि पुरूष सूक्त का प्रयोजन क्या है इसकी उत्पति किस प्रकार से हुई है।
पुरूष सूक्त की उत्पति अनादि काल से हुई है। तथा इसी सूक्त के माध्यम से आज सनातन धर्म की रक्षा हो रही है।
सभी सूक्तों में ‘पुरूषसूक्त’ श्रेष्ठ माना गया है। इसका सम्बन्ध सृष्टि सृजन से जुड़ा हुआ है। इसमें सोलह ऋचाएँ हैं, जो भगवान् नारायण के सृष्टि सृजन के स्वरूप को लेकर इससे जुड़ी हुई हैं। इन सोलह ऋचाओं से ही देवता के षोडशोपचार पूजन हैं।
पूजन के प्रत्येक उपचार के साथ पुरुषसूक्त की एक एक ऋचा जुड़ी है। इसके भावार्थ से ही सृष्टि सृजन का बोध होता है। इसके प्रथम मन्त्र में ही सहस्त्र शिरो से भाव है समस्त ब्रह्माण्ड जिसका अंश अस विश्व मृत्युलोक में समस्त प्राणियों से जुड़ा हुआ है। यह स्वरूप हजारों नेत्र, हाथ पैर, अन्द्रिय होने से विराट स्वरूप में प्रत्यक्ष है, जीवन में प्रत्यक्ष इसका आविर्भाव होता है।
जीव का अंत हो जाने पर इसका तिरोभाव होता है। इससे परब्रह्म महानारायण परमात्मा का व्यक्त और अव्यक्त निराकार और साकार रूप प्रकट होता है, जो अनत स्वरूप है, जिसकी हजारों मूर्तियाँ है, जिसके हजारों पाँव, आँखें भुजाएं हैं वह अच्युत पुरुष कोटियुगों से विद्यमान है। वस्तुतः वही सृष्टि का सृजन तत्त्व रूप में विद्यमान है। उस पुरूषोत्तम पुरूष को हम बार बार नमस्कार करते हैं।
पुरुष सूक्त के सोलह मंत्रों को हिन्दी में अनुवाद किया गया हैं जिसे आप मंत्रों को पढ़ने के साथ-साथ इसका हिन्दी में अर्थ भी समझ पाएंगे। जो निम्न प्रकार से है-
हे मनुष्यों जिस पूर्ण परमात्मा में हम मनुष्य आदि के असंख्य शिर, आँखे और पैर आदि अवयव है जो भूमि आदि से उपलक्षित हुए पाँच स्थूल और पाँच सूक्ष्म भूतों से युक्त जगत् को अपनी सत्ता से पूर्ण कर जहाँ जगत नहीं वहाँ भी पूर्ण हो रहा है।
वह विराट पुरुष ही भूत, भविष्य और वर्तमान है, वहाँ अमृतत्वस्य ईशान अ अमरता का स्वामी गत अनेन अतिरोमत अर्थात् जो अन्य से बढ़ता है। अन्न का अर्थ प्राण भी है
इस विराट की इतनी महिमा है कि उससे भी बढ़कर व परुष महिमा वाला है इसके एक पादस्वरूप यह समस्त चराचर जगत है और तीन पादस्वरूप अमृतत्व दिव्य लोभ है।
यह पूर्वोक्त परमेश्वर कार्यजगत से पृथक तीन अंश से प्रकाशित हुआ एक अंश अपने सामर्थ्य से सब जगत को बार बार उत्पन्न करता है, पीछे उस चराचर जगत् में व्यास होकर स्थित है। अर्थात् अनशन और अशन की सृष्टि में शासन के अन्तर्गत जगत जिसमें अन्नादि सृष्टि के प्राणी एवं अनशन अर्थात दिव्यलोक के प्राणी निवास करते है।
परमेश्वर ही से सब समष्टिरुप जगत उत्पन्न होता है, वह उस जगत् से पृथक उसमें व्याप्त भी हुआ, उसके दोषों से लिप्त न होकर इस सबका अधिष्ठाता है। इस प्रकार सामान्य रूप से जगत की रचना का वर्णन कर विशेषकर भूमि आदि की रचना को क्रम से कहते है।
जिस सबका गहण करने योग्य, पूजनीय परमेश्वर ने सब जगत के हित के लिए दही आदि भोग्य पदार्थों और ग्राम के तथा वन के पशु बनाये है उसकी सब लोग उपासना करो।
हे मनुष्य! तुम को चाहिए कि उस पूर्ण अत्यन्त पूजनीय जिसके अर्थ सब लोग समस्त पदार्थों को देते या समर्पण करते है उस परमात्मा से ऋग्वेद, सामवेद उत्पन हुआ उस परमात्मा से अथर्ववेद उत्पन्न हुआ और उस पुरुष से यजुर्वेद उत्पन्न होता है और उस वेद को पढ़ो और उसकी आज्ञा के अनुकूल वर्त्त के सुखी होओ।
हे मनुष्यों! तुम को घोड़े तथा जो कोई गदहा आदि दोनों, ओर ऊपर नीचे दांतों वाले हैं वे उस परमेश्वर से उत्पन्न हुए उसी से गौवें या अन्य भी एक और दाँत वाले जीव निश्चचय करके उत्पन्न हुए हैं, इस प्रकार कहना चाहिए।
विद्वान मनुस्यों को चाहिए कि सृष्टिकर्ता ईश्वर का योगाभ्यासादि से सदा हृदयरूप अवकाश में ध्यान और पूजन किया करे।
हे विद्वानों! आप जिस पूर्ण परमेश्वर को विविध प्रकार से धारण करते हो उसको कितने प्रकार से विशेषकर कहते हैं और इस ईधर की सृष्टि में मुख के समान श्रेष्ठ कौन है? भुजबल को धारण करने वाला कौन है? उरू अर्थात् घोंटू के कार्य करने वाले कौन है और पाँव के समान तुच्छ कौन कहे जाते हैं?
हे जिज्ञासु लोगो ! तुम उस ईश्वर की सृष्टि में वेद ईश्वर का ज्ञाता इनका सेवक या उपासक मुख के तुल्य उत्तम ब्राह्मण है। भुजाओं के तुल्य बल पराक्रमयुक्त राजन्य (क्षत्रिय) है। ऊरू अर्थात् जघाओं के तुल्य वेगादि से काम करने वाला अथवा व्यापारविद्या में प्रवीण वैश्य है। सेवा और अभिमान से रहित होने से शूद्र उत्पन्न हुआ है।
जो यह सब जगत् कारण ईश्वर ने उत्पन्न किया है उसमें चन्द्रलोक मनरूप, सूर्यलोक नेत्ररूप वायु और प्राण श्रोत्र के तुल्य, मुख के तुल्य अग्नि औषधि और वनस्पति रोगों के तुल्य नदी नाड़ियों के तुल्य और पर्वतादि हड्डी के तुल्य है ऐसा जानना चाहिए
हे मनुष्यों! जो जो इस सृष्टि में कार्यरूप वस्तु है वह सब विराटरूप कार्यकारण काअवयवरूप है, ऐसा जानना चाहिए।
जब ब्राह्म सामग्री के अभाव में विद्वान लोग सुष्किसी ईश्वर की उपासनारूप मानस ज्ञान को विस्तृत करें तब पूर्वाह आदि काल ही साधनरूप से कल्पना करना चाहिए
हे मनुष्यों! जिस मानस ज्ञानयज्ञ को विस्तृत करते हुए विद्वान लोग जानने योग्य परमात्मा को वे दिल में बांधते हैं। इस यज्ञ के सात गायन और अन्य श्लोक सूट के चारों ओर के सात आवरण (परिधि) के समान हैं। इक्कीस, अर्थात् प्रकृति महतत्व, अहंकार, पांच सूक्ष्म प्राणी, पांच स्थूल प्राणी, पांच इंद्रियां और सत्त्व, रज, तीन गुण ये सामग्री रूप किये उस यज्ञ को अथावत् जानो। इस विशेषता वाले पुरुष को यज्ञ विस्तार है उसकी पशुता को समाप्त करने के लिए बाँधा अर्थात् यज्ञ वेदी पर आहूत किया।
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हे मनुष्यों! जो विद्वान् लोग पूर्वोक्त ज्ञानयज्ञ से पूजनीय सर्वरक्षक अग्निवत् तेजस्वि ईश्वर की पूजा करते है, वे ईश्वर की पूजा आदि धारणरूप धर्म अनादि रूप से मुख्य है, वे विद्वान् महत्व से युक्त हुए जिस मुख में इस समय से पूर्व साधनों को किये हुए प्रकाशमान विद्वान् है उस सब दु:खरहित मुक्तिसुख को ही प्राप्त होते है उसको तुमलोग भी प्राप्त होवोगे।